क्या है सनातन धर्म? जानिये इसकी विशेषताएं और महत्त्व!

सनातन धर्म सिर्फ एक धर्म नही अपितु जीवन जीने का एक योजनाबद्ध क्रम, कला व तरीका है.

ऐसा माना जाता है कि सनातन धर्म मूलतः भारतीय धर्म है जो किसी जमाने मे पूरे भारतीय उपमहाद्वीप तक व्याप्त रहा हैं. विभिन्न कारण से हुए भारी धर्मान्तरण के बाद भी विश्व के इस क्षेत्र की बहुसंख्यक आबादी इसी धर्म में आस्था रखती है।

सनातन धर्म शाश्वत या हमेशा बना रहने वाला है. अर्थात जिसका न आदि है न अन्त। जिसका न प्रारंभ है और जिसका न अंत  है  उस सत्य को ही सनातन कहते है. यही सनातन धर्म का सत्य है.

सत्य, अहिंसा, त्याग और परोपकार सनातन धर्म के मूल मंत्र हैं। समाज को समरस  बनाने में सनातन धर्म की भूमिका महत्वपूर्ण है।

 

सनातन मूल तत्व

सनातन धर्म के मूल तत्व सत्य, अहिंसा दया क्षमा, दान, जप, तप, यम नियम आदि हैं. अन्य प्रमुख धर्मों के उदय के पूर्व वेदों में इन सिद्धान्तों को प्रतिपादित कर दिया गया था

 असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय।

मृत्योर्मामृतं गमय   शान्ति शान्ति शान्तिः 

अर्थात हे ईश्वर, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो

ऐसा माना जाता है कि असत्य से मृत्युकाल में अनंत अंधकार में पड़ते हैं।  उनके जीवन की गाथा भ्रम और भटकाव की ही गाथा सिद्ध होती है। वे कभी अमृत्व को प्राप्त नहीं होते। मृत्यु आए इससे पहले ही सनातन धर्म के सत्य मार्ग पर आ जाने में ही भलाई है। अन्यथा अनंत योनियों में भटकने के बाद प्रलयकाल के अंधकार में पड़े रहना पड़ता है।

 

सनातन धर्म हमें क्या सिखाता है?

सनातन धर्म हमें प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति में परमात्मा का दर्शन करने की शिक्षा देता है. सनातन धर्म कहता है कि गलतिया करें तब भी सच्चे मन से कोशिश करे कि फिर उन्हें न दोहरायें.

सनातन धर्म सिर्फ एक धर्म नही अपितु जीवन जीने का एक योजनाबद्ध क्रम, कला व तरीका है. मनुष्य के पूरे जीवन के हर पडाव में, क्या-क्या योजनाएं व संस्कार निहित है, सब बातों का क्रमबद्ध, ज्ञान सनातन धर्म हमे सिखाता है. सनातन धर्म उच्च आचरण के साथ-साथ मनुष्य को जीवन जीने की सभ्यता का विशेष मार्ग दर्शन करता है.

सनातन धर्म हमें सिखाता है कि कैसे एक राम सामान पुत्र अपने पिता के वचन का पालन करने के लिए समस्त भौतिक राज-पाट, सुख-सुविधाओं का त्याग करके चौदह वर्ष के लिए एक वनवासी का जीवन समाज कल्याण के लिए व्यतीत करता है.

सनातन धर्म का पालन एक कठिन तपस्या है, जिसके मार्ग पर चलकर व्यक्ति केवल स्वयं के बारे में नही अपितु विश्व कल्याण के बारे में सोचता है और उसी हिसाब से आचरण करता है।  सनातन धर्म किसी भी प्रकार से छोटा-बड़ा और ऊंच-नीच के भेद-भाव को नहीं मानता.

सनातन धर्म न केवल मनुष्यों बल्कि प्रकृति की सभी अन्य वस्तुओं को जीवधारी ही मानता है और हर चीज़ के प्रति जीधारियों के सामान ही आचरण करने का पाठ पढ़ाता है।

 

सनातन धर्म के संस्कार 

हिंदू धर्म में संस्कारो का विशेष महत्व है. संस्कार से जीवन में पवित्रता, सुख, शान्ति और समृद्धि का विकास होता है। ऐसा माना गया है कि संस्कार के द्वारा व्यक्ति शुद्ध होकर मानव बनता है, उसके अंदर के अवगुण समाप्त होते है। संस्कारों  के माध्यम से उन्हें नैतिक कर्तव्यों एवं उत्तर दायित्वों का बोध कराया जाता है. इससे हर व्यक्ति अपने नैतिक कर्तव्य को करते हुए मोक्ष को प्राप्त होता है। संस्कारों के पालन से व्यक्ति आयु  और आरोग्यता को प्राप्त करता है.

 

सनातन धर्म में कितने संस्कार बताये गये हैं?

हिंदू धर्म में बताये गये सोलह संस्कारो के अनुसार जीवन यापन करने से मनुष्य जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है. इन 16 संस्कारों के नाम इस प्रकार हैं:

  • गर्भधारण संस्कार
  • पुंसवन संस्कार
  • सीमन्तोनपत्रयन संस्कार
  • जातकर्म संस्कार
  • नामकरण संस्कार
  • निष्क्रमण संस्कार
  • अन्नप्राशन संस्कार
  • मुंडन संस्कार मुंडन/चूड़ा कर्म संस्कार
  • विद्यारंभ संस्कार
  • कर्णभेद संस्कार
  • उपनयन/यज्ञोपवीत संस्कार
  • वेदारंभ संस्कार
  • केशात संस्कार
  • समावर्तन संस्कार
  • विवाह संस्कार
  • अंत्येष्टि संस्कार

 

गर्भधारण संस्कार

इस संस्कार के माध्यम से ही भविष्य के मनुष्य की नींव पड़ती है. इसलिए इस संस्कार के नियमो के द्वारा एक स्त्री का गर्भ धारण करना, गर्भ-धारण संस्कार के अन्तर्गत आता है. शास्त्रों  में इस नियम का वर्णन किया गया है.

 

पुंसवन संस्कार

यह संस्कार गर्भाधान के तीन माह के पश्चात किया जाता है। क्योंकि इस समय तक एक महिला के गर्भ धारण करने की पुष्टि हो चुकी होती है, इसके बाद उस महिला को अपने आचार-व्यवहार खानपान, रहन-सहन, इत्यादि  चीजों मे बदलाव लाना होता है। और कई चीजों का त्याग भी करना पड़ता है. इस संस्कार के माध्यम से वह गर्भ मे अपने शिशु की रक्षा करती है तथा उसे शक्तिशाली तथा समृद्ध बनाने मे अपना योगदान देती है।

 

सीमन्तोनपत्रयन संस्कार

यह संस्कार गर्भधारण के सातवें से नौवें महिने किया जाता है. गर्भावस्था की तीसरी तिमाही तक एक शिशु का अपनी माँ के गर्भ में इतना विकास हो चुका होता है कि वह अपनी माँ के गर्भ में सुख-दुःख की अनुभूति कर सके. वह बाहरी आवाजों को समझ सकता है तथा उन पर प्रतिक्रिया भी दे सकता है ।

इस अवस्था तक उसमे बुद्धका विकास भी हो चुका होता है. इसलिए इस संस्कार के द्वारा उस महिला का धार्मिक ग्रंथो, कथाओं, सुविचारों का अध्ययन करने को कहा जाता है। इसके द्वारा वह गर्भ में ही अपने शिशु को अच्छे संस्कार दे सकती हैं।

 

जातकर्म संस्कार

यह संस्कार शिशु के जन्म लेने  के तुरंत बाद किया जाता है। एक शिशु नौ महिने अपनी माँ के गर्भ में रहता है तथा जन्म लेने के बाद उसकी गर्भ नालिका काटकर माँ से अलग कर दिया जाता है। अब उसे स्वतंत्र रूप से वायु में सांस लेनी होती है व दूध पीना होता है। इसलिए इस संस्कार के माध्यम से शिशु के मुख में ऊँगली डालकर बलगम को निकाला जाता है ताकि वह अच्छे से सांस ले सकें। इसी के साथ उसे हाथ की तीसरी उंगली या सोने के चम्मच से शहद चटाया जाता है। जिससे बच्चे के वात, पित्त के दोष दूर होते है। माँ के द्वारा अपने शिशु को पहली बार दूध पिलाना भी इस संस्कार में सम्मिलित हैं।

 

 

नामकरण संस्कार

यह संस्कार शिशु के जन्म के 11 दिन के पश्चात किया जाता है। जिसमें घर में हवन-यज्ञ का आयोजन किया जाता है। इस संस्कार के माध्यम से उसके जन्म लेने के समय, तिथि इत्यादि को ध्यान से मे रखकर उसकी कुंडली का निर्माण किया जाता है और उसी के अनुसार उसका नामकारण किया जाता है. यह नाम उसके गुणों के आधार पर किया जाता है जो जीवन भर उसकी पहचान बना रहता है. इसलिए इस संस्कार के माध्यम से उसका उचित नाम रखा जाता है।

 

निष्क्रमण संस्कार

शिशु को उसके जन्म से लेकर चार मास तक घर में रहना होता है। उसे कहीं बाहर नहीं निकाला जाता है। क्योंकि इस समय तक बच्चा अत्यधिक नाजुक होता है। तथा बाहरी वातावरण के संपर्क में आने से उसे संक्रमण का खतरा बना रहता है। इसलिए जब वह चार महीने का हो जाता है तब निष्क्रमण संस्कार से प्रथम बार उसे घर से बाहर निकाला जाता है।  उसके बाद सूर्य, जल व वायु देव के संपर्क में लाकर शिशु के कल्याण की प्रार्थना की जाती है। इस संस्कार के पश्चात एक शिशु बाहरी दुनिया के  संपर्क में रहने लायक बन जाता है।

 

अन्नप्राशन संस्कार

जन्म से लेकर छह माह तक एक शिशु पूर्ण रूप से अपनी माँ के दूध पर निर्भर होता है तथा इसके अलावा उसे कुछ भी खाने पीने को नहीं दिया जाता है। छ: माह का होने बाद उसे धीरे-धीरे माँ के दूध के अलावा अन्य भोजन तरल पदार्थ के रूप में देने शुरू कर दिए जाते हैं जैसे कि दाल का पानी, दलिये का पानी, इत्यादि. शिशु को माँ के दूध के अलावा प्रथम बार भोजन देने की प्रक्रिया को ही अन्नप्राशन संस्कार कहा जाता है।

 

मुंडन संस्कार

यह संस्कार शिशु के जन्म के पहले या तीसरे वर्ष में किया जाता है।  इसमें उसके गर्भ के बालों को उतारा जाता है। इस संस्कार के द्वारा माँ के गर्भ से जिनती अशुद्धियां मिली रहती हैं उन सभी अशुद्धियों को पूर्ण रूप से समाप्त कर दिया जाता है।

 

कर्णभेद संस्कार

यह संस्कार प्राचीन समय में बालक वा बालिका दोनों में समान रूप से किया जाता था।  लेकिन वर्तमान समय में यह सिर्फ बालिकाओ में ही किया जाता है। यह संस्कार बालक या बालिका के शिक्षा आरम्भ करने से पहले किया जाता है। यह संस्कार जन्म के तीसरे वर्ष में करना होता है। जिसमें कान के उचित स्थान पर भेदन करके कुंडल पहनाया जाता है।

 

विद्यारंभ संस्कार

यह संस्कार एक बालक या बालिका के जन्म के पांचवे से आठवें वर्ष में शुरू किया जाता है।  एक समाज में विद्या को ग्रहण करना अति आवश्यक होता है। तभी एक सुशिक्षित तथा संस्कारी समाज का निर्माण संभव है। नही तो चारो ओर अराजकता व्याप्त होने का डर रहता है। किसी भी शिक्षा को ग्रहण करने के लिए पहले एक बालक को अक्षर तथा भाषा का ज्ञान करवाना अति आवश्यक होता है। इसलिए इस संस्कार के माध्यम से उसे भाषा, अक्षर लेखन तथा शुरुआती ज्ञान दिया जाता है।

 

 

उपनयन संस्कार

यह संस्कार एक बालक के आठवें से बारहवें वर्ष के अन्तराल में किया जाता है।  इस  संस्कार के माध्यम से एक गुरु उस बालक की परीक्षा लेते हैं। तथा उसे जनेऊ धारण करवाया जाता है। इस संस्कार के पश्चात उसे ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए गुरुकुल में रहना होता है। एक तरह से गुरुकुल में प्रवेश पाने के लिए यह संस्कार किया जाता है। जिससे गुरु उसे गुरु अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करते हैं।

 

वेदारंभ संस्कार

उपनयन संस्कार के तुरंत बाद वेदारंभ संस्कार शुरू हो जाता है।  जिसमें वह बालक अपने गुरु के आश्रम में रहकर ब्रह्मचर्य का पूर्ण रूप से पालन करते हुए वेदों का अध्ययन करता है। इसी के साथ उसे, आश्रम की सफाई, भिक्षा मांगना, गुरु की सेवा करना, भूमिपर सोना, इत्यादि कठिन नियमों का पालन करना होता है।

 

केशांत संस्कार

जब गुरु को यह विश्वास हो जाता है।  कि उनका शिष्य अब पूरी तरह से पारंगत हो चुका है तब वे उसका केशांत संस्कार करते हैं. दरसल एक शिष्य को गुरुकुल में रहते हुए सिर के बाल तथा दाढ़ी कटवाना वर्जित होता है। परन्तु जब उसकी शिक्षा पूरी हो जाती है तो एक बार फिर से उसका मुंडन किया जाता है। दाढ़ी बनवाई जाती है। यह संस्कार एक तरह से उसकी शिक्षा के पूरी होने का संकेत होता है।

 

समावर्तन संस्कार

इस संस्कार का अर्थ होता है पुनः अपने घर को लौटना ।  शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात उसे पुनः अपने समाज में लौटना होता है. इसलिए इससे पहले समाज में संतुलन स्थापित करने के उद्देश्य से उसके गुरु द्वारा उसे समाज में ढलने का प्रयास किया जाता है। इस संस्कार के पश्चात एक मनुष्य गुरुकुल से शिक्षा ग्रहण का पुनः अपने घर व समाज को लौटता है व गृहस्थ जीवन जीता है।

 

विवाह संस्कार

शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात अब वह मनुष्य गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर चुका होता है।  इसलिए अब  उसका पूरे विधि-विधान से विवाह करवाया जाता है। विवाह संस्कार को करके मनुष्य अपने पितृ ऋण  से मुक्त हो पाता है। क्योंकि वह विवाह करने पश्चात संतान को जन्म देगा, तथा सृष्टि को आगे बढ़ाने में अपना योगदान देगा |

 

अंत्येष्टि संस्कार

यह संस्कार मनुष्य के जीवन का अन्तिम संस्कार होता है। जो उसकी देह त्याग के पश्चात उसके पुत्रों/भाई/परिवारजनों  के द्वारा किया जाता है। हमारा शरीर पंचभूतों से बना होता है। जो आकाश, पृथ्वी, वायु, जल तथा अग्नि । इसलिए मनुष्य के देह त्याग के पश्चात उसके शरीर को उन्ही पांच तत्वों में मिलाना आवश्यक होता है। जिससे कि उसकी आत्मा को शांति मिल सके। इसलिए यह संस्कार अत्यधिक महत्वपूर्ण माना गया है।

 

सनातन धर्म की विशेषताए 

हिन्दू धर्म का उद्धभव या निर्माण ही ज्ञान से हुआ है. अतः यह ज्ञान स्वरूप है. हिन्दू धर्म विश्व का एकमात्र धर्म जिसका निर्माण ज्ञान व वर्षो के अध्ययन व साधना से हुआ है।

ऐसा माना गया है कि जीव चैरासी लाख योनियो में भ्रमण करता है. उसे मनुष्य योनि बड़े पुण्य से मिलता है. इस जन्म के बाद उसका पुर्नजन्म होता है. जन्म-मरण के इस चक्र को सांसरिक चक्र कहते है. जीवन के इस सांसारिक चक्र में मनुष्य का एक मात्र साथी धर्म है. धर्म ज्ञान और कर्म दोनो रूप में है। कर्म रूप में वह तीन प्रकार का है: प्रारब्ध, संचित और क्रियमाण.

  • वर्तमानजन्म जिस कर्म के फल स्वरूप मिलता है उसे प्रारब्ध कहते हैं
  • प्रारब्धके अतिरिक्त पूर्वजन्म के जो कर्म है वो संचित कहलाते हैं
  • इसजन्म में जो कर्म किये जाते हे उन्हे क्रियामाण कहते है जिनका फल अगले जन्म में मिलता है।

हिन्दू धर्म कर्मवाद के सिद्धान्त को मानता है जिससे मनुष्य इस जीवन में अच्छे कर्म करके अपने आने वाले जीवन व अगले जन्म को सवार सके। प्रारब्ध को तो मनुष्य को इसी जन्म में भोगना पड़ता है परंतु  धर्म के द्वारा मनुष्य संचित व क्रियामाण के प्रभाव से बच सकता है।

 

ईश्वर प्राप्त करने के मार्ग

ईश्वर प्राप्त करने के मार्ग अनेक है जैसे कर्म मार्ग, भक्ति मार्ग, ज्ञान मार्ग और योग मार्ग. ऋग्वेद में कहा गया है कि सब एक है इस प्रकार सनातन हिन्दू धर्म में उपासना के मार्ग अनेक है किन्तु मंजिल एक ही है। सनातन हिन्दू धर्म के प्रमुख गुण है उदारता, सहिष्णुता व परोपकार जिससे हिन्दू धर्म का सदैव संरक्षण होता रहा है.

 

सनातन हिन्दू धर्म की वर्णित पाँच बाते

वंदना, वेद पाठ, व्रत, तीर्थ और दान लेकिन इसके अलावा और बहुत सी बाते है जिन्हे हम जानना चाहिए

ब्रह्नम ही सत्य है: ईश्वर एक ही है और वही प्रार्थनीय तथा पूजनीय है वही सृष्टा और वही सृष्टी भी। शिव, राम, कृष्ण आदि सभी उस ईश्वर के संदेश वाहक है. हजारो देवी देवता उसी एक के प्रति नमन करते है. वेद-वेदान्त और उपनिषद एक ही परमात्मा को मानते है।

वेद ही धर्म ग्रन्थ हैः– कितने लोग है जिन्होने वेद पढे होगे सभी ने पुराणो की कथाए जरूर सुनी होगी और उन पर विश्वास किया तथा उन्ही के आधार पर अपना जीवन जिया और कर्मकाण्ड किया तथा ऋषियो द्वारा पवित्र ग्रन्थो, चाद वेद एव अन्य वैदिक साहित्य की दिव्यता एव अचूकता पर जो श्रद्धा रखता है वही सनातन धर्म की सुदृढ नीव को बनाए रखता है।

सृष्टि की उत्पत्ति  प्रलय: हिन्दू धर्म मे मान्यता है कि सृष्टि उत्पत्ति पालन एव प्रलय की अनंत प्रक्रिया पर चलती है. गीता में कहा गया है कि जब  ब्रहमा का दिन उदय होता है तब सब कुछ अदृष्य से दृष्यमान हो जाता है जैसे ही रात होने लगती है सब कुछ वापस आकर अदृश्य में लीन हो जाता है.  यह सृष्टि पंच कोष तथा आठ तत्वो से मिलकर बनी है परमेश्वार सबसे बढ़कर है।

कर्मवान बनेः सनातन हिन्दू धर्म भाग्य से ज्यादा कर्म पर विश्वास रखता है. कर्म से ही भाग्य का निर्माण होता है. कर्म एवं सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने भविष्य के लिए पूर्ण रूप से स्वयं ही उत्तरदायी है प्रत्येक व्यक्ति अपने मन वचन एव कर्म की क्रिया सेअपनी नियति स्वयं तय करता है. इसी से प्रारब्ध बनता है कर्म का विवेचन वेद और गीता में दिया गया है। 

पुनर्जन्म: सनातन हिन्दू धर्म पुनर्जन्म में विश्वास रखता है. जन्म एव मृत्यु के निरंतन पुनरावर्तन की प्रक्रिया से गुजरती हुई. आत्मा अपने पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करती है. आत्मा के मोक्ष प्राप्त करने से ही वह चक्र समाप्त होता है।

प्रकृति की प्रार्थना: वेद प्राकृतिक तत्वो की प्रार्थना किए जाने के रहस्य को बताते है. ये नदी, पहाड़, समुद्र, बादल, अग्नि, जल,वायु ,आकाश और हरे भरे प्यारे वृक्ष हमारी कामनाओ की पूर्ति करने वाले है. अतः इनके प्रति कृतज्ञता के भाव हमारे जीवन की समृद्धि कर हमे सदगति प्रदान करते हे इनकी पूजा नही प्रार्थना की जाती है. यह ईश्वर और हमारे बीच सेतू का कार्य करते है यही दुःख मिटाकर सुख का सृजन करते है।

गुरू का महत्व: सनातन धर्म में सद्गुरु के समक्ष वेद शिक्षा दीक्षा लेने का महत्व है. किसी भी सनातनी के लिए एक गुरू का मार्ग दर्शन आवश्यक है. गुरू की शरण में गए बिना अध्यात्म व जीवन के मार्ग पर आगे बढ़ना असंभव है लेकिन वेद यह भी कहते हे कि अपना मार्ग स्वयं चुनो जो हिम्मतवर है वही अकेलेचलने की ताकत रखते है।

 

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