कुआँ पूजन परम्परा
हिन्दू धर्म में कुआँ पूजन की परम्परा बहुत पुरानी है. यह परम्परा भगवान श्री कृष्ण के जन्म से जुड़ी है. कहा जाता है कि भगवान कृष्ण के जन्म के समय माता यशोदा ने यह पूजा की थी। कुआँ पूजन को ही जल पूजा यानी जलवा पूजन भी कहते हैं. यह पूजन पुत्र प्राप्ति पर किया जाता है. खासतौर से मूल नक्षत्रो में जन्मे बच्चों के लिए यह पूजा जरूरी मानी जाती है।
कुआँ पूजन का धार्मिक महत्व
कुआँ पूजा पूरे देश में भगवान श्री कृष्ण के जन्म के ग्यारहवे दिन की जाती है.
इस अवसर पर कृष्ण मंदिरों में पूजा-अर्चना होती है तथा भगवान कृष्ण की मूर्ति को डोल यानी सूप में रखकर शोभा यात्रा निकाली जाती है. कुआँ पूजन पर कृष्ण लीला और सांस्कृतिक कार्यक्रमो का आयोजन बहुत ही रमर्णीक एवं मनोहर तरीके से किया जाता है. भगवान श्री कृष्ण के कुआँ पूजन पर वैदिक मंत्रो व विधि-विधान के साथ पूजन का आवाहन किया जाता है. सभी महिलाएं यशोदा माँ का रूप धारण कर पारम्परिक मान्यताओं एवं रिवाजो के अनुसार भगवान श्री कृष्ण के चित्र और मटके को सिर पर रखकर शोभा यात्रा की शुरूआत करतीं हैं. शोभा यात्रा में भगवान श्री कृष्ण के जयकारो से सारा वातावरण कृष्णमय हो जाता है. जहाँ-जहाँ यह शोभा यात्रा जाती है वहाँ-वहाँ लोग भगवान श्री कृष्ण के मनोहर रूप का स्वागत करते है।
शादी-विवाह संस्कार में भी किया जाता है कुआँ पूजन
परंपरा अनुसार हिन्दू विवाह के समय जब लड़का बारात लेकर घर से निकलता है, तब माँ लड़के के साथ पहले कुआँ पूजन करती है.
जिसमें एक सूप में आटे का दिया, सींक, अक्षत हल्दी और बताशे आदि रखे जाते है.
इन चीजों से लड़के की माँ कुआँ पूजन करती है वहीँ दूल्हा कुआँ की सात बार परिक्रमा करके सींक को कुवें में डालता है. इस चुटीली रीती में हंसी-मज़ाक करते हुए माँ बेटे से झूठ-मूठ रूठे का अभिनय करती है. दूल्हा पूरे मनुहार के साथ अपनी माँ को प्यार-दुलार से मनाता हैं और बहू लाने का वादा करके बारात का अग्रणी बनकर चला जाता है। रीती के अनुसार इसके बाद दूल्हा पीछे मुड़ कर नहीं देखता।
कुआँ पूजन मूल नक्षत्र संस्कार
हमारे शास्त्रों में पूरे आकाश मण्डल को 27 नक्षत्रों में बांटा गया है. हर नक्षत्र का मूल स्वभाव अलग-अलग होता है जो अलग-अलग फल देता है.
जहाँ कुछ नक्षत्र बेहद ही कोमल होते हैं, कुछ दूसरे बहुत ही उग्र व कठोर होते हैं.
उग्र नक्षत्रों को मूल नक्षत्र, सतईसा या गड़ात कहा जाता है. इस नक्षत्र में जन्मे बच्चों को कई तरह की परेशानिया झेलनी पड़ती हैं. नक्षत्र की शान्ति के लिए खास पूजा कराई जाती है ताकि बच्चे को नाकारात्मक प्रभाव से बचाया जा सके।
मूल नक्षत्र में जन्मे बच्चे पर प्रभाव
मूल नक्षत्र में जन्मे बच्चे पर गुरू और केतु का सीधा प्रभाव पड़ता है. जहाँ केतु कभी नाकारात्मक तो कभी सकारात्मक असर डालता है वही गुरू हर बुरे प्रभाव को सही कर जीवन में प्रकाश डालने का काम करता है।
मूल, ज्येष्ठा, अश्वलेषः, आश्विन, मेघा और रेवती ये 6 मूल नक्षत्र होते है. जिसमें से किसी भी नक्षत्र में जन्में बच्चे का स्वास्थ थोड़ा कमजोर रहता है.
अगर बच्चा इस नक्षत्रो में से किसी भी नक्षत्र में जन्म लिया है तो पिता को तब तक बच्चे का मुख नही देखना चाहिए जब तक उस बच्चे का मूल शान्त न करवा लिया जाये.
इस नक्षत्र में जन्मे बच्चे को जन्म लेने के 27 दिन बाद ही मूल नक्षत्र शान्त करवाने चाहिए. बच्चे के 8 साल के बाद किसी भी मूल नक्षत्र का प्रभाव ज्यादा दिन नही रहता है. कुआँ पूजन परम्परा से भी इन ग्रह नक्षत्रों को शान्त किया जाता है।
कुआँ पूजन महत्व
कुआँ पूजन एक हिन्दू अनुष्ठान है जो नवजात शिशु के कल्याण के लिए ईश्वार से आर्शीवाद मांगने के लिए किया जाता है. कुआँ पूजन समारोह बच्चे के जन्म के 27वे दिन किया जाता है.
कुआँ पूजन विधि
कुआँ पूजन में बच्चे को गुनगुने पानी से स्नान कराकर लाल या पीले कपड़े पहनाए जाते है.
उसके बाद बच्चे की माँ या घर की बड़ी महिला अपने सर पर एक खाली कलश और चाकू रखती है और मंगल गीत गाते हुए शिशु और माँ को गाजे बाजे के साथ लेकर कुएं के पास पहुंचती है.
कुआँ पूजन के लिए सबसे पहले कुवें के पास आटे व कुमकुम से स्वास्तिक बनाकर मीठे का भोग लगाया जाता है. उसके बाद पूजा की जाती है. उसके बाद कुवें से कलश में जल भरकर लाया जाता है. उसके बाद जन्म के बाद माँ और बच्चे को पहली बार मन्दिर ले जाया जाता है.
जब माँ अपने बच्चे को लेकर मन्दिर पहली बार जाती है तो उसे देवांगना कहते हैं.
फिर माँ के हाथ से चावल से गौरी या स्वास्तिक बनवाये जाते हैं. फिर उस पर प्रसाद चढ़ाये जाते है और वापस घर आकर पूजा की तैयारी की जाती है।
पूजन सामाग्री
- मूग
- धनिया
- हल्दी
- चावल
- कलावा
- दिया
- तेल
- गेंहू
- पानी का कलश
- नारियल
- पान का पत्ता
- सुपारी
- दूर्वा
- फल
- फूल
- लकड़ी का पाटा
- आरती की थाली, आदि
कहाँ करें कुआँ पूजा?
प्राचीन समय में जल पूजा यानी कि कुआँ पूजा कुवें के किनारे पर की जाती थी। लेकिन वर्तमान समय में यदि आपके आस-पास कोई कुआँ नही हो तो आप किसी नदी के किनारे पर जाकर भी पूजा कर सकते है
अगर नदी या कुआँ दोनो ही आपके पास में उपलब्ध नही हो तो आप पानी के नल के पास जाकर भी जल पूजा कर सकते हैं।
पूजन विधि
- पूजा के पाटे पर पानी का कलश रखें.
- कलश के नीचे गेंहू रखें.
- कलश पर आम का पल्लव लगाएं.
- उस पर पान का पत्ता रखें और फिर उस पर नारियल रखें.
- फिर अलग से पाटे पर पान का पत्ता रखकर उस पर सुपारी, आटे के फल रखें और हल्दी और चावल चढ़ाएं.
- फिर पूजन स्थान पर बच्चे व उसकी माँ को बैठाये वहा चैक बनाएं.
- यह पूजा ऐसी जगह रखे जहाँ सूरज की रोशनी आती हो. लेकिन साथ ही बच्चे का मुँह ढककर रखें ताकि पूजा के दिये की लौ व सूरज की रोशनी बच्चा न देख सके.
- सबसे पहले कलश पर जल छिड़कें और दिये को जलाएं.
- हल्दी से दूसरे पाटे पर चाँद और सूरज बनाएं.
- घर मे जो खाना बना हो भोग के लिए निकाले
- फिर कण्डे की आग मे भोग लगाएं.
- ननद बच्चे और माँ को तिलक लगाए और कलावा बांधकर आरती उतारे.
- उसके बाद पाटे के चारो ओर फेरा लगाकर भगवान से बच्चे की सलामती के लिए प्रार्थना करे.
- भोग को चावल में मिलाकर गोले बनाकर माँ और बच्चे के ऊपर से उतारकर चारो दिशाओं में फेक दें.
- बची हुई खाद्य सामग्री को गौ माता को खिलायें.
कुआँ पूजन बच्चे के जन्म के किनते दिनो बाद कर सकते है?
11, 27, 31 इन तीनो दिनों में से किसी भी दिन जन्म लिए बच्चे का कुआँ पूजन या मूल नक्षत्र या शान्ति पूजा करवा सकते है। प्रसूता स्त्री को बच्चे के जन्म देने के 21 वे दिन या 1 महिने के बाद ही कुआँ पूजन करना चाहिए.
कुआँ पूजन शुभ दिन
कुआँ पूजन के लिए शुभ दिन सोमवार, बुद्धवार, व शुक्रवार होते हैं.
कुआँ पूजन शुभ मुहूर्त
कुआँ/जल पूजन का शुभ मुहूर्त हस्त, मूल, पुष्य, अनुराधा, पुनर्वसु तथा श्रवण नक्षत्र के दौरान होता है।
कुआँ पूजन शुभ तिथि
कुआँ पूजन किसी भी माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी, नवमी तथा चतुर्दशी तिथि को छोड़कर शेष सभी तिथियो को किया जा सकता है।