इंसान खून-पसीने की कमाई से घर खरीदता है। पाई-पाई जोड़कर अपने सपनों के घर के लिए पैसा जमा करता है और जो कमी रह जाती है, वह बैंक लोन के जरिए पूरी की जाती है। एेसे मामलों में ग्राहक की आय का बड़ा हिस्सा हर महीने कटने वाली ईएमआई के तौर पर जाता है। इसलिए हिस्सेदारी पर इतना निवेश करने से पहले सावधानी बरतनी चाहिए।
प्रॉपर्टी की कीमत वेरिफाई करें:
सबसे पहले अपना बजट देखें और उसी कीमत में प्रॉपर्टी की तलाश करें। किसी इलाके और वहां मौजूद सुविधाओं के आधार पर ही उसकी कीमत तय होती है। बिल्डर द्वारा अपार्टमेंट की कीमत बताए जाने के बाद आस-पड़ोस की प्रॉपर्टीज की उससे तुलना करें। इसकी जानकारी आपको अखबार, प्रॉपर्टी से जुड़ी वेबसाइट या उस इलाके के ब्रोकर से मिल जाएगी।
बिल्डर-ग्राहक का अग्रीमेंट:
जब खरीददार टोकन राशि का देकर फ्लैट बुक कराता है तो उसे एक अलॉटमेंट लेटर मिलता है। इसके बाद वह बाकी राशि के लिए बैंक और बिल्डर के साथ एक त्रिपक्षीय अग्रीमेंट करता है। इस स्टेज पर खरीददार और बिल्डर के बीच अग्रीमेंट पर दस्तखत होने चाहिए। हालांकि यह अग्रीमेंट बिल्डर के पक्ष में होता है और ग्राहक के लिए यह जरूरी है कि वह इस समझौते में लिखी बातों को ध्यान से पढ़े।
उदाहरण के तौर पर कई बार बिल्डर खुद के क्लॉज जोड़ देता है, जिससे उसे पोजेशन के वक्त कीमतें बढ़ाने का अधिकार मिल जाता है। इस क्लॉज में लिखा होता है कि बाजार में अप्रत्याशित स्थिति होने (जैसे कच्चे माल की कीमतों में इजाफा) या अपार्टमेंट के साइज बढ़ने के कारण कीमतों में बढ़ोतरी की जा रही है। पोजेशन के वक्त एक डिमांड लेटर जारी कर इसकी मांग की जाती है। हाल ही में एेसा ही एक केस नोएडा एक्सटेंशन इलाके में आया था, जहां एक नामी बिल्डर ने पूरे हो चुके फ्लैट्स के लिए ग्राहकों से ज्यादा राशि मांगी थी।
लोकेशन और इन्फ्रास्ट्रक्चर:
प्रोजेक्ट की लोकेशन का आकलन करना बेहद जरूरी है। दिल्ली के चार्टेड फाइनेस प्लानर मनीष सैलूजा ने कहा, ”ग्राहक को यह जरूर देखना चाहिए कि प्रोजेक्ट में उसे क्या सुविधाएं दी जा रही हैं। साथ ही पड़ोस में और क्या-क्या चीजें हैं। अगर इलाके में पहले से ही मूलभूत सुविधाएं हैं तो आपको नए घर में रहने में आसानी होगी”।
अपार्टमेंट की पोजेशन:
इंडस्ट्री के अनुमान के मुताबिक कई रिहायशी और कमर्शियल प्रोजेक्ट्स में देरी हो रही है। नतीजन प्रस्तावित खरीददार को प्रोजेक्ट की अवधि का जमीनी आकलन करना चाहिए। प्रोजेक्ट की डिलीवरी कई मसलों पर निर्भर करती है, जैसे डिवेलपर के पास फंड्स की उपलब्धता, प्रोजेक्ट की सेल्स, कच्चे माल की सप्लाई इत्यादि। इसके अतिरिक्त मॉनसून के वक्त कंस्ट्रक्शन का काम धीमा हो जाता है। लिहाजा प्रोजेक्ट डिलीवर करने के लिए ज्यादातर बिल्डर कम से कम 6 महीने का ग्रेस पीरियड मांगते हैं। बिल्डर से साथ हुए कॉन्ट्रैक्ट में विस्तार से ग्रेस पीरियड की जानकारी होती है।
अगर बिल्डर वक्त पर फ्लैट का पोजेशन नहीं दे पाता तो उसे 5-7 रुपये प्रति स्क्वेयर फुट की दर से पेनाल्टी भरनी पड़ती है। लेकिन जो पेनाल्टी बिल्डर चुकाता है, वह बेस प्राइज से निर्धारित की जाती है, जिसमें पार्किंग, क्लब मेंबरशिप इत्यादि जैसे अतिरिक्त चार्ज नहीं होते। जेएलएल इंडिया के रेजिडेंशल सर्विसेज के सीईओ अश्विंदर राज सिंह ने कहा, ”अगर पोजेशन में देरी होती है तो कई बिल्डर अपार्टमेंट का सही किराया भी देते हैं”।
अतिरिक्त शुल्क:
अपार्टमेंट की कीमत में क्लब मेंबरशिप, पार्किंग, डिवेलपमेंट चार्जेज और पावर बैकअप जैसे शुल्क शामिल होते हैं। ये शुल्क पेमेंट शेड्यूल में शामिल होते हैं और नियमित अंतराल पर लिए जाते हैं। रजिस्ट्रेशन के वक्त, ग्राहक को स्टैंप ड्यूटी और रजिस्ट्रेशन चार्जेज चुकाने पड़ते हैं जो प्रॉपर्टी वैल्यू से कैलकुलेट होते हैं। इसकी दर हर इलाके में अलग-अलग होती है। इसलिए इन शुल्क के बारे में आपको जानकारी होनी चाहिए, ताकि उसी के मुताबिक आप खुद को तैयार रख सकें।